Thursday 2 June 2011

मरहूम मासूम नह्टोरी साहब की याद में मुरादाबाद मुशायरा २९ मई २०११

मरहूम मासूम नह्टोरी साहब की याद में मुरादाबाद मुशायरा २९ मई २०११
मरहूम मासूम  नह्टोरी साहब की याद में २९ मई को मुरादाबाद उत्तर प्रदेश में एक मुशायरा पूलिस अकादमी के सभागार में मुनाक्किद किया गया इतेफाक से मैं उस दिन मुरादाबाद में ही था और फेसबुक पर मैंने अपने status पर लिखा था तो मुझे अकील नोमानी साहब के कमेन्ट से पता चला कि २९ मई को मुरादाबाद के मुशायरे में उनसे मुलाक़ात होगी खैर जब मुझे पता चला कि इस मुशायरे में शिरकत करने के लिए पदमश्री बेकल उत्साही , वसीम बरेलवी साहब, नवाज़ देओबंदी साहब , आलोक श्रीवास्तव साहब  , अकील नोमानी साहब , इकबाल अशहर साहब , शकील आज़मी साहब , सरवत जमाल साहब, अजम शाकिरी साहब, अशोक साहिल साहब , हसन काज़मी साहब , मैकश अमरोहवी साहब, डॉ. सुमन दुबे , डॉ. नुजहत अंजुम साहिबा और तंजो मिज़ा के जनाब एजाज़ पोपुलर मेरुठी साहब और दीगर शोहरा तशरीफ़ ला रहे हैं तो मैंने अपनी वो सुहानी शाम इस खुबसूरत मुशायरे के नाम कर दी रात को मैं जब सभागार में पहुंचा तो महमाने खुसूसी रीता बहुगुणा जोशी जो कांग्रेस की सूबाई सदर हैं तशरीफ़फर्मा थी उनके साथ राजकुमारी रीना साहिबा साबिक वजीर , और मुशायरे की सदारत करने के लिए जनाब ज़फर अली नकवी साहब सांसद भी मौजूद थे वहीँ पर समाजवादी चिन्तक जनाब सयेद सग़ीर साहब , साबिक विधायक जनाब सौलत अली साहब मौजूद थे 
मुशायरे की शमा रोशन इन महमानों ने की उसके बाद मुशायरे की बाजाब्ता शुरुआत मुशायरे के नाजिम जनाब मंसूर उस्मानी साहब ने कराइ जो मुशायरों की दुनिया में अपना एक मुकाम रखते हैं और ऐसा लगता है की लफ्ज़ उनके सामने  हाथ जोड़े खड़े हों वो जब बोलते हैं तो बस माइक सामाइन और उनके अलफ़ाज़ होते हैं मैं जब भी उनको सुनता हूँ हर बार उनकी निजामत में नयापन होता है हर बार ऐसा लगता है की ये नए मंसूर उस्मानी साहब हैं जिन्हें  मैं पहली  बार सुन रहा हूँ उन्होंने सबसे पहले जनाब नवाज़ देओबंदी साहब की नात पाक से की गयी ] 
इसके बाद बहारिया दौर का आग़ाज़ हुआ सबसे पहले मंसूर उस्मानी साहब ने अपने ही निराले अंदाज़ में  जनाब शकील आज़मी साहब को मधु किया गया शकील आज़मी जो कि १५ फिल्मों में गीत लिख चुके हैं बेहतरीन नोजवान शायर हैं और तहत में शायरी करते हैं उन्होंने ऑडिटोरियम में बैठे हुए सामाइन  को एक से बढ़कर एक ग़ज़लों से नवाज़ा सामें उनको भरपूर दाद से नवाजते रहे  उन्होंने कहा ,
"कई आँखों में रहती है कई बाहें बदलती है ,
मोहब्बत भी सियासत की तरह राहें बदलती है ,


इबादत में न हो ग़र फायदा तो यूँ भी होता है ,
अकीदत हर नई मन्नत पर दरगाहें बदलती है"
इसके बाद जनाब मंसूर उस्मानी साहब ने दावते कलम अजम शाकरी साहब को दी अजम शाकरी ग़ज़ल की दुनिया का जाना माना नाम जब पढ़ते हैं तो लगता है की सुनते ही चले जाया जाये उन्होंने अपनी ग़ज़ल में कुछ यूँ कहा....
"नज़र उठाके ज़रा देख शाने दरवेशी ,
अमीर लोग भी हैं झोलियाँ पसारे हुए ,


ये अंधी आँखें उजाले कहाँ तलाश करें,
चराग हैं जो अंधेरों से जंग हारे हुए "
दर्शक लगातार दाद से नवाजते रहे इसके बाद हिंदुस्तान के मशहूर ओ मारुफ़ शायर जनाब हसन काज़मी साहब की बारी आई और उन्होंने अपनी खुबसूरत आवाज़ में खुबसूरत शायरी से सामाइन को दाद देने को मजबूर कर दिया उन्होंने अपनी ग़ज़ल के हवाले से कहा कि
"खुबसूरत हैं आँखें तेरी रात को जागना छोड़ दे ,
खुद ब खुद नींद आ जाएगी तो मुझे सोचना छोड़ दे"
बारी आई सरवत जमाल साहब की तो उन्हें मंसूर उस्मानी साहब ने पुकारा और जब उन्होंने अपना कलम पढना सुरु किया तो पदमश्री जनाब बेकल उत्साही और ग़ज़ल के शहंशाह प्रोफेसर वसीम बरेलवी साहब ने उन्हें दादों तहसीन से तो नवाज़ा ही सामाइन भी दाद देने को मजबूर हो गए उन्होंने ग़ज़ल के हवाले से कुछ यूँ कहा 
कितने दिन, चार, आठ, दस, फिर बस
रास अगर आ गया कफस, फिर बस
जम के बरसात कैसे होती है
हद से बाहर गयी उमस फिर बस
तेज़ आंधी का घर है रेगिस्तान
अपने खेमे की डोर कस, फिर बस
हादसे, वाक़यात, चर्चाएँ
लोग होते हैं टस से मस, फिर बस
सब के हालात पर सजावट थी
तुम ने रक्खा ही जस का तस, फिर बस
थी गुलामों की आरजू, तामीर
लेकिन आक़ा का हुक्म बस, फिर बस
सौ अरब काम हों तो दस निकलें                        
उम्र कितनी है, सौ बरस, फिर बस
इसके बाद जब बारी आयेशहूर शायर जनाब अशोक साहिल साहब की तो उन्होंने अपने अंदाज़ में कुछ  यूँ कहा 
"बुलंदियों   पर पहुचना   कोई कमाल नहीं 
बुलंदियों  पर ठहरना   कमाल होता है
अब बारी आती है ब्लोगिंग और पत्रकारिता की दुनिया का जाना माना नाम आलोक श्रीवास्तव का  जिनकी ग़ज़लें आज पूरी दुनिया में धूम मचा रही हैं और जगजीत सिंह जैसे मशहूर ग़ज़ल सिंगर उनकी ग़ज़लों को अपनी आवाज़ दे रहे हैं उन्होंने अपने खुबसूरत अंदाज़ में एक से बढ़कर एक ग़ज़लें सुनकर सामाइन की वाह वाही लुटी उन्होंने कहा 
"तुम्हारे पास आता हूं तो सांसे भीग जाती हैं,
मुहब्बत इतनी मिलती है के' आंखें भीग जाती हैं।



तबस्सुम इत्र जैसा है, हंसी बरसात जैसी है,
वो जब भी बात करता है तो बातें भीग जाती हैं।

तुम्हारी याद से दिल में उजाला होने लगता है,
तुम्हें जब गुनगुनाता हूं तो सांसें भीग जाती हैं।

ज़मीं की गोद भरती है तो क़ुदरत भी चहकती है,
नए पत्तों की आमद से ही शाखें भीग जाती हैं।

तेरे एहसास की ख़ुशबू हमेशा ताज़ा रहती है,
तेरी रहमत की बारीश से मुरादें भीग जाती हैं।"
हिंदी जगत की मशहूर शायरा डॉ. सुमन दुबे ने कुछ इस अंदाज़ में सामें से दाद वसूल की 
नाखुदा हमी तो तेरे इश्क के मारे निकले ,
ग़र से निकले तो तूफ़ान के सहारे निकले 
ग़ज़ल का एक और जाना माना नाम इकबाल अशहर कुछ इस अंदाज़ में सामा इन की दाद लुटने आये और उन्होंने मुरादाबाद के सामा इन को दाद देने पर मजबूर कुछ इस अदा से किया 
"उसकी खुशबु मेरी ग़ज़लों में सिमट आई है ,
नाम का नाम है रुसवाई की रुसवाई है ,
सिलसिला ख़तम हुआ जलने जलने वाला 
अब कोई खुआब नहीं नींद उड़ाने वाला "
तंजो मिज़ा के बाकमाल शायर एजाज़ पोपुलर मेरठी साहब को जब दवाते सुखन दी गयी तो उन्होंने अपनी खुबसूरत शायरी से सामा इन को बार बार हसने को मजबूर कर दिया और सामा इन बार बार उन्हें बुलाते रहे उन्होंने क्या खूब क़तात और नज़्म पढ़ी जिससे सामा इन दाद देते रहे और मिज़ा का मज़ा लेते रहे
" कर गयी घर मेरा खाली मेरे सो जाने के बाद ,
  मुझको धड़का था कि कुछ होगा तेरे आने के बाद,
  मैंने दोनों बार थाने में लिखी थी रपट,
एक तेरे आने से पहले एक तेरे जाने के बाद "
   
 मुशायरे की खुबसूरत निज़ामत कर रहे मंसूर उस्मानी साहब को उनका कलाम पढने के लिए जब अकील नोमानी साहब ने पुकारा तो पूरा ऑडिटोरियम तालियों की गडगडाहट से गूंज उठा फिर मंसूर साहब ने शायरी के जलवे दिखाते हुए कहा कि 
"ज़िन्दगी भर की कमाई है ग़ज़ल की खुशबु, 
हमने मुश्किल से बचाई है ग़ज़ल की खुशबु,
मैंने जिस दिन से मोहब्बत का छुआ है दामन, 
मेरी साँसों में समाई है ग़ज़ल की खुशबु"
अपना कलाम पढने के बाद मंसूर उस्मानी साहब ने फिर निजामत के फ़रायज़ अंजाम देते हुए ग़ज़ल के बेताज बादशाह अकील नोमानी साहब को पुकारा तो एक बार फिर हाल तालियों की गडगडाहट से गूंजने  लगा उन्होंने बेहद खुबसूरत ग़ज़लें सुनाई उनका अंदाज़ तो देखिये 
"मुझमें कुछ है जो बदलने नहीं देता मुझको, 
एक मुद्दत से बदल जाने को जी चाहता है ,
रौशनी दिल में उतरती है तो जल जाते हैं,
कौन कहता है की जल जाने को जी चाहता है,
लाख मालूम हों झूठे दिलासे लेकिन ,
बाज़ औकात बहल जाने को जी चाहता है"
मैकश अमरोहवी ने अपने जलवे से सामा इन को कुछ इस तरह लुत्फ़ अन्दोज़ किया 
"हिफाज़त ग़र नहीं होती इमारत टूट जाती है ,
अगर शीशा शिकस्ता  है तो सूरत टूट जाती है "
लखनवी अंदाज़ में जब डॉ. नुजहत अंजुम साहिबा ने अपनी ग़ज़लों और गीत को पढ़ा तो उनके कलाम में नफासत और सच्चाई नज़र आई और सामा इन ने उनहूँ भरपूर दाद से नवाज़ा उनका अंदाज़े बयाँ कुछ इस तरह था 
"रस्मे वफ़ा निभाना तो ग़ैरत की बात है ,
वो मुझको भूल जाएँ ये हैरत की बात है ,
सब मुझको चाहते हैं ये शोहरत की बात है ,
मैं उसको चाहती हूँ ये किस्मत की बात है "
मुरादाबाद के शायर  जिनके २ मजमुए मंज़रे आम पर आ चुके हैं जनाब डॉ. मुजाहिद फ़राज़ साहब ने भी बेहद खुबसूरत कलाम सुनाये उन्होंने कहा की 
"जब भी सियाह रात का मंज़र सताएगा, 
कुछ जुगनुओं का साथ बहुत याद आएगा ,
आंधी  इस ऐतबार पर आई इस तरफ,
ये सिरफिरा चिराग कोई फिर जलाएगा"
इसके बाद बारी थी अपने अलग अंदाज़ के लिए पहचान  वाले डॉ. नवाज़ देवबंदी साहब की जिन्होंने अपने बेहतरीन कलाम सुनाकर सामा इन की दाद लुटी उन्होंने कहा कि
" सब्र को दरिया कर देते हैं आंसू रुसवा कर देते हैं,
ज़ख्म पे मरहम रखने वाले ज़ख्म को गहरा कर देते हैं,
रोशन जुगनू तेज़ हवा का नखरा ढीला कर देते हैं,
हम जिस जंगल से भी गुजरें उसको रस्ता कर देते हैं,
अह्लुल्लाह से मिलकर देखो अपने जैसा कर देते हैं"
अब मंसूर उस्मानी साहब ने जब ग़ज़ल के शहंशाह वसीम बरेलवी साहब को पुकारा तो पूरा हॉल एक बार फिर तालियों कि आग़ोश में चला गया उन्होंने कहा
"अगर हवाओं से लड़ना इन्हें नहीं आता ,
तो फिर लड़ाई चिरागों में होने लगती है "
उन्होंने फिर कहा 
"रात भर शहर कि दीवारों पे गिरती रही ओस ,
और सूरज को समंदर से ही फुर्सत न मिली "
वसीम साहब जब अपने निखर पर आये तो फिर ये अंदाज़ भी दिखाया 
"बिगड़ना भी हमारा कम न जानो,
तुम्हें कितना संभालना पढ़ रहा है "
इंतज़ार था कि पदमश्री जनाब बेकल उत्साही साहब का कि वो मुशायरे को उरूज अता करें और जब मंसूर साहब ने उनका नाम पुकारा तो सभी लोगों ने उठकर उनका इस्तकबाल किया और उन्होंने भी सामा इन कि पसंद का ध्यान रखते हुए अपने गीत और नज्मों से सामा इन कि दाद बटोरी उनके गीत कि बानगी देखिये 
"कातिल ये है वो मकतुल, एक शाख पे कोरा फूल,
अब जीने का यही उपाय , सबकी आँख में झोंको धुल, 
प्यार से जीत ले सारा जहाँ , इधर उधर क्यूँ है मशगुल"
रात के ४ बज रहे थे मुशायरा अपने आखरी लम्हात के जेरे साया था जब मंसूर उस्मानी साहब ने मुशायरा ख़तम होने को कहा ये खुबसूरत मुशायरा जिसमें सच्ची शायरी ही सुनी गयी और इसको शायरों ने भी दिल से पढ़ा इसी मुशायरे में मेरी मुलाक़ात मेरे शायर क्लब के २ दोस्त और दोनों ही साहिबे दीवान है जनाब जिया ज़मीर साहब advocate और डॉ. मुजाहिद फ़राज़ साहब से हुई 
  मरहूम मासूम नह्टोरी साहब की याद में इस मुशायरे को सयेद नूर उद्दीन साहब और उनके दोस्तों ने सजाया था इस मुशायरे में मैंने बहुत ज़िम्मेदारी से जनाब सयेद युसूफ साहब को भी देखा जिन्होंने बेहद महनत की और महमानवाजी की मिसाल कायम की मैं शुक्रगुज़ार हूँ मंसूर उस्मानी साहब और अकील नोमानी साहब का कि इस खुबसूरत महफ़िल से मैं भी लुत्फंदोज़ हुआ 
शुक्रिया दोस्तों