Tuesday 11 October 2011

सीमा गुप्ता जी के जन्म दिन के अवसर पर उनके काव्य संग्रह "विरह के रंग " की समीक्षा






                  कहते हैं कि अगर इश्वर को मंज़ूर हो तो पथरीली ज़मीन से भी सब्ज़ा (हरियाली ) उग सकता है खुश्कियों से भी आबशार फुट सकता है .....सीमा गुप्ता इन पंक्तियों को सार्थक करती नज़र आती हैं..फौजी पृष्ठभूमि , अनुशासित परिवार में शायरी का अंकुर फूटना किसी चमत्कार से कम नहीं .....

                सीमा गुप्ता ने कमउमरी में ही हर वह ऊँचाई जिसे देखकर वह विस्मित थी ....अपने पैरों से रौंद दी ...
जब मन की वेदना , लेखनी का माध्यम प्राप्त करती है तो कविता का रूप धार लेती है और जब वही कविता कर्ण स्पर्श करती है तो सोये हुए एहसास को जगा देती है यही मन से मन तक की यात्रा लेखक का मार्ग प्रशस्त करने में सहयोग करती है और सदैव अग्रसारित करती रहती है इन्ही अनगिनत भावों के समावेश से काव्य संग्रह अभिव्यक्ति पाते हैं और साहित्य में अपना स्थान निर्धारित करते हैं ..... सीमा गुप्ता जी की कल्पना शीलता उनकी कविताओं में कहीं सूर्य तो कहीं जुगनुओं की तरह तेजस्वी और कहीं मद्धम उजाले ही बिखेरती है और यही इन्द्रधनुष अपने तेज में प्रकाशित होते हुए आहिस्ता आहिस्ता "विरह के रंग में तब्दील " हो जाता है
"विरह के रंग " में बकौल सीमा जी ..."न सुर है न ताल है , बस भाव हैं और जूनून है लिखने का " को मद्देनजर रखते हुए हमें शायरी के फन और अरुज या व्याकरण को भी नज़रंदाज़ करना होगा ... दिल से निकले भावों को दिल की गहराई से समझकर उसी पर केंद्रित रहना होगा .... उनकी नज्मों और उनकी ग़ज़लों में जो दर्द , कसक, और कराहट है वो पथार्दिल इंसान को भी मॉम बना सकती है ... और दर्द रूपी सागर में हिचकोले खाने को मजबूर कर सकती है "विरह के रंग " में शायरा ने प्रेम और विरह की उस तपिश और जलन का वर्णन किया है जो उसे अंदर ही अंदर भस्म करना चाहती है ....वहीँ दूसरी तरफ वह मीरा और राधा की तरह अपने प्रीतम से बे इन्तहा प्यार करती है ..... प्रेमी की जुदाई भी उसे बर्दाश्त नहीं .... तो प्रेमी के ऊपर इलज़ाम को भी वो बर्दाश्त नहीं कर पाती वो कहती है ....... 
"जब वो चेतना में लौटेगा और
पश्चाताप के तूफानी सैलाब से 
गुजर नहीं पायेगा 
जड़ हो जायेगा 
मैं डरती हूँ बस उस एक पल से ....
इस में नायिका अपने प्रेमी को उस आने वाले पल में भी अपनी मोहब्बत के आँचल में समेटना चाहती है ........ 
अब उसका दूसरा रूप जहाँ वह प्रेमी को चेतावनी देती है .....
ह्रदय के जल थल पर अंकित 
बस चित्र धूमिल कर जाओगे 
याद तो फिर भी आओगे ......
सीमा गुप्ता जी शायरी के कुछ अंश यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ ..... जिनको पढकर अजीब सी कशमकश तारी हो जाती है ......
"रात के पहरों की सारी सौगातें चुनती हूँ 
उलझे से खुवआबों की बस बरसातें चुनती हूँ "

"रास्ता जब बन रास्ते की गली 
मैं जो गुजरी तो धडकन की लय बन गयी 
एक खिडकी खुली और तुम्हें देखकर 
मैं जहाँ पर खडी थी कड़ी रह गयी 
जिंदगी भर यही सोचती रह गयी "

"एकांत के झुरमुट में छुपकर 
मैं द्वार ह्रदय का खोलूंगी 
तुम चुपके से बस आ जाना 
और झाँक के मेरी आँखों से 
एक पल में सदियाँ जी जाना " 

"एक उदासी दिल पर मौत के जैसी थी 
लेकिन अब जीने की ठानी सुनती हूँ"

"बाँहों का करके घेरा 
चौखट से सर टिका के 
और भूल करके दुनिया 
साँसों को भी भुला के 
खोकर कहीं क्षितिज में 
जलाधार दो बुलाके 
मुझे याद किया तुमने या नहीं ...... ज़रा बताओ "

ये वो कुछ अंश हैं इस मजमुए के जिस में शायरा अपनी लेखनी के माध्यम से पाठक के दिल तक पहुचने में कामयाब हुई है ...दिल तक पहुंचना किसी फनकार की सबसे बड़ी उपलब्धि होती है .....पाठक के दिल तक सीमा जी पहुँचने मैं कामयाब हुई है .......यही उनकी लेखनी का कमाल है ......मेरी तरफ से सीमा गुप्ता जी को बहुत बहुत शुभकामनायें ......
हादी जावेद 

5 comments:

daanish said...

सीमा जी की कल्पनाओं को
शब्दों में देखना बहुत अच्छा लगा
सीमा जी की लेखन कुशलता
आपकी पारखी नज़रों से होते हुए
हम सब तक पहुंची है... और खूब पहुंची है !

आप दोनों को के लिए शुभ कामनाएं .

हास्य-व्यंग्य का रंग गोपाल तिवारी के संग said...

Achhi samiksha.

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